कई वर्षों के अंतराल के बाद विचार है की अपना विचार साक्षा करूँ।समय बदलते समय नहीं लगता।समय बदला लोग बदले विचार धराए बदली राजनीत बदली राजनेता बदल गए।हम आप वही रह गए।क्योंकि विचार नहीं मिलते। आगे भी लिखता रहूँगा
हल्ला गुल्ला...
शुक्रवार, 23 सितंबर 2022
शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011
छोटे राज्य की जिद
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देश में जहां-जहां पृथक राज्य बने, वहां-वहां यही नारा दिया गया था कि अलग राज्य बन जाने से उन क्षेत्रों का तेज विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उलटा। झारखंड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा से संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊंचाई को पार कर गया है। यहां के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि यहां के पूर्व मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।
पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन के कारण आंध्र प्रदेश की सरकार ठप पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबादवासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। हर वर्ग के लोग इस आंदोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित नए धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा, जबकि यह केवल मृगतृष्णा है।
हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास संभव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सचाई तो यह है कि अलग राज्य बनने का मतलब है आम जनता की जेब पर डाका डालना। अलग राज्य बनेगा, तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाई कोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमंडल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इन सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर, जिसे झूठे आश्वासनों, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
मुझे याद है गोरखालैंड का वह आंदोलन, जब वहां 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आए दिन दार्र्जिलिंग में बंद हो रहे थे। बंद की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आंदोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुंचा। मेरे चारों ओर एलएमजी का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किकआधार क्या है? उत्तर मिला, ‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चौकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की संपत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनाएगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गई। बाद में उसी इलाके में काउंसिल केनेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाएं, तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं।
पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है, जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले, तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? नतीजतन अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था। जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चलता है, जैसा आजकल तेलंगाना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहां की जनता के अनुभव प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाएं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था, पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला।
आंदोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए, तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता, क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं, तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए, जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।
पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन के कारण आंध्र प्रदेश की सरकार ठप पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबादवासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। हर वर्ग के लोग इस आंदोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित नए धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा, जबकि यह केवल मृगतृष्णा है।
हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास संभव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सचाई तो यह है कि अलग राज्य बनने का मतलब है आम जनता की जेब पर डाका डालना। अलग राज्य बनेगा, तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाई कोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमंडल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इन सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर, जिसे झूठे आश्वासनों, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
मुझे याद है गोरखालैंड का वह आंदोलन, जब वहां 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आए दिन दार्र्जिलिंग में बंद हो रहे थे। बंद की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आंदोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुंचा। मेरे चारों ओर एलएमजी का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किकआधार क्या है? उत्तर मिला, ‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चौकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की संपत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनाएगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गई। बाद में उसी इलाके में काउंसिल केनेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाएं, तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं।
पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है, जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले, तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? नतीजतन अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था। जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चलता है, जैसा आजकल तेलंगाना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहां की जनता के अनुभव प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाएं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था, पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला।
आंदोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए, तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता, क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं, तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए, जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।
लेखक....विनीत नारायण
सौजन्य अमर उजाला
शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011
बचपन
पानी में खेलते इन बच्चों को देखकर यारो हमें अपना बचपना याद आ गया। यकीनन आप को भी धूमिल यादे ताज़ा हो गयी होगी। अपने छोटे पन में स्कूल से आते वक्त हमे कोई तालाब या नहर मिलता था तो हम और हमारे सखा लोग खूब मस्ती किया करते थे। इनकी अल्हडता और इस अल्हडता में नहाना और साथ में आपस में प्यार भरी उद्दण्डता को देखकर ये ऐहसास हुआ कि इस कायनात में मोहब्बत और अपनापन अभी भी है और आज इन बच्चो को देखकर ऐ और भी पक्का हो गया कि कि पानी कि चाहे कुछ बूंदे ही हो लेकिन उन बूंदो में अपनापन और शालीनता थी। तो भाई हम भी ना रुक पाएं और ना हमारा कैमरा ही रुक पाया और खींच ली कुछ तस्वीरे।
सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
होमियोपैथी बीमार का इलाज करती है, बीमारी का नहीं।
कुछ दिन पहले हम अपने घर गये हुए थे, पानी के बदलाव के कारण मुझे जुकाम खांसी की शिकायत हो गयी थी। कई तरह की दवाइयां और नुक्से लेकर मै बेहद परेशान हो गया था, कि अब क्या किया जाए। गांव के कुछ लोगो ने सलाह दी कि भैय्या आप होमियोपैथी दवा कराइए तभी कुछ हो सकता, इसके पहले मै कभी होमियोपैथी दवाओं को आजमाया नहीं था। लोगो के कहने पर मैने कहा ठीक है तो मैने लगभग 5-7 दिन ही दवा का सेवन किया होगा। धीरे-धीरे मै पूरी तरह से ठीक हो गया। सोचा कि क्यों न इस पर कुछ लिखा जाएं, होमियोपैथी क्या, कौन था इस विधा का जन्म दाता,क्या है खास इस पद्धति में और इसकी औषधि में। मेरे प्यारे ब्लॉगर दोस्तो आप भी इस पद्धति को अपनाएं और स्वस्थ रहे।
एक होम्योपैथ फेल कर सकता है होम्योपैथी नहीं - महात्मा गांधी
होमियोपैथी का मूल सिद्धांत प्रकृति का मूल सिद्धांत है। लेटिन भाषा में इस विधा को “similia,similibus,curantur” कहते है। जिसका अर्थ समः सम शमयति (“let ,likes be treated by likes”) है। ये सुनने में अजीब लगेगा लेकिन है सत्य, होमियोपैथी दवाएं पहले बीमारी को उभारती हैं फिर उस रोग को ठीक करती है और मिलते जुलते रोग भी दूर हो जाती है जिन्हे औषधि उत्पन्न कर सकती है।
होमियोपैथी मेँ हर बीमारी का कारण जीवन शक्ति का असंतुलन है जीवन शक्ति का संतुलन शरीर को स्वस्थ प्रदान करता है जिससे सभी संवेदनाओ का आदान-प्रदान भलि भांति होता है। यदि किसी कारणवस हमारे संवेदनाओ के आदान-प्रदान में कुछ गड़बड़ी हो जाती है तो हम बीमार हो जाते है। जब तक हमारे शरीर में जीवन शक्ति का संतुलन बना रहेगा। शरीर में कोई बीमारी नहीं आती है। होमियोपैथी दवा भी यही काम करती है यह शक्ति के अंसुतलन को संतुलित कर शरीर को स्वस्थ बनाती है।
होमियोपैथी का इतिहासः
होमियोपैथी की शुरुआत जर्मनी के मशहूर डॉक्टर सैम्यूअल हैनीमैन ने की थी। हैनिमैन जर्मनी के एक ख्याति प्राप्त उच्च – पदाधिकारी एलोपैथिक चिकित्सक थे। चिकित्सा विधान के अनुसार अनुमान से रोग निर्वाचन कर औषधि देते थे, जिससे कभी – कभी भंयकर हानियां होती थी, इससे उन्होंने दुःखी होकर चिकित्सा व्यवसाय से धन कमाना छोड़ दिया।लेकिन जीवन यापन करने के लिए उन्होंने किताबों का अनुवाद करना शुरु कर दिया। एक दिन मेटेरिया मेडिका किताब का अनुवाद करते हुए एकाएक उनके दिमाग में एक विचार आया कि बुखार आने पर अगर सिनकोना दवा दी जाए तो रोगी रोग मुक्त हो जाता है, लेकिन स्वस्थ मनुष्य को यही दवा दी जाए तो क्या होगा ? इसी प्रश्न ने होमियोपैथी को जन्म दिया।
दवाऐं कैसे और किन-किन चीजों से बनती है?
1. वनस्पतियों - जड़,तना ,छाल, पत्ती,कली, फूल,फल,अर्क,गोंद,तेल या संपूर्ण भाग से बनती है।
2. जीव जंतुओं - उलके स्राव एवं उत्तकों आदि से बनती है।
3. मादक पदार्थों – भाँग,गांजा,अफीम आदि पदार्थों से तैयार की जाती है।
4. खनिज लवण – पारा, शीशा, सोना ,तांबा, आदि से तैयार की जाती है
यह समस्त दवाएं मूल अर्क, विचूर्ण एंव पोटेन्सी के रुप में होती है। होमियोपैथिक दवा बनाने के लिए या रोगी को देने के लिए कई माध्यमों का प्रयोग किया जाता है जिनका अपना कोई औषधिय गुण नहीं होता है।
ये मुख्यतः दो रुपों में होते है।
1.तरल के रुप में
2.खुश्क के रुप में
और यही दोनो दवा देने के लिए प्रयोग किया जाता है।
1. मूल अर्क...(Mother Tinchar ) वनस्पतियों से बनने वाली दवाइयो में एल्कोहल के साथ, जो की उसमें घुलन शील हो उसका मूल अर्क तैयार किया जाता है जिसमें एल्कोहल की मात्रा 90% v/v होता है, मूल को Q से दर्शाते है।
2. विचूर्ण (TRITURATION)—जो पदार्थ एल्कोहल में घुलनशील नहीं होतें उनको SUGAR OF MILK के साथ खरल करके विचूर्ण तैयार किया जाता है।
3. शक्तिः(POTENCY) किसी भी दवा का मूल अर्क या विचूर्ण लेकर एल्कोहल के साथ एक विशेष प्रकार झटका STROKES लगाते है या शुगर मिल्क के साथ खरल में एक विशेष प्रकार से रगड़ कर उसके अन्दर की शक्ति को निकाल लिया जाता है
इस प्रकार हम देखते है कि होमियोपैथी एक पूर्ण और सरल चिकित्सा पद्धति होने के
साथ – साथ इस मंहगाई के समय में सस्ती एंव लोकप्रिय हो रही है। होमियोपैथिक
दवाऐं खाने एंव पीने में बच्चे,बूढ़े और सभी आसानी से खा सकते है। इन दवाओं का
कोई नुकसान नहीं है। होमियोपैथिक दवाएं दिन में कितनी बार और कितनी मात्रा में ले
इसका निर्धारण बीमारी के ऊपर निर्भर करता है।
होमियोपैथिक दवाऐं खाली पेंट मुंह साफ करके जबान पर डाल करके चूसना चाहिए, आम
तौर पर बच्चों के लिए 20 नः और सभी को 40 नः की गोली का प्रयोग करना चाहिए।
मदर टिंचर भी बीमारी के ऊपर निर्भर करता है कि किसको कितनी मात्रा में दिया
जाएं। सामान्य तौर पर यह 5-20 बूंद तक चौथाई कप पानी में दो से चार बार तक
लिया जाता है। होमियोपैथी समस्त देश के साथ-साथ इस समय लगभग 40-50 देशों में
मान्यता प्राप्त है। ये कहना गलत नहीं होगा कि होमियोपैथी एक समपूर्ण चिकित्सा
पद्धति है।
होमियोपैथी की लगभग 4000 दवाइयां है।
होमियोपैथी दवाओं का कोई साइड – इफेक्ट(नुकसान) नहीं है।
पिछले 30 सालों में होमियोपैथी का विकास ज्या़दा तेजी से हुआ है।
विश्व में हर साल होमियोपैथी के विकास में 20% का इज़ाफा हो रहा है।
इंग्लैड़ की महारानी एलीजाबेथ -2 कभी भी होमियोपैथी दवाओं के बिना यात्रा नहीं करती हैं।
भारत में लगभग सौ से अधिक होमियोपैथी मेडिकल स्कूल हैं।
भारत में होमियोपैथी के डॉक्टरों की संख्या तकरीबन 2,50,000 है।
एक सर्वे के मुताबिक भारत के 62% शहरी लोग होमियोपैथी में विश्वास करते हैं।
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