बुधवार, 31 मार्च 2010

हथेली पर लट्टू



हथली पर लट्टू
हाथ की हथेलियों पर नाचती ये लकड़ी के लट्टू जो शायद ये बात कह रही है कि यही है जिद़गी का सच। क्या वाकई हमारी जिद़गी इस कठपुतलीनुमा लकड़ी के लट्टू की तरह है कि हम या हमारी जिदगी इसी तरह गोल गोल घूमते रहेगे। क्या हम अपनी हथेलियों में बनी लकीरो का इंतजार करते रहेगे। हथेली की रेखाओ को कब तक हम अपनी कमज़ोरी मानते रहेगे। ये चंद लकीरे ही हमे अपना पथ बतलायगी। कि हम क्या करे..... हम क्या न करे.... वह रे लट्टू तेरे भी क्या जलवे।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

kya likhte ho yaar.....