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देश में जहां-जहां पृथक राज्य बने, वहां-वहां यही नारा दिया गया था कि अलग राज्य बन जाने से उन क्षेत्रों का तेज विकास होगा। लेकिन हुआ इसका उलटा। झारखंड का उदाहरण लें, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा से संतृप्त इस छोटे से जनजातीय राज्य में भ्रष्टाचार हिमालय की ऊंचाई को पार कर गया है। यहां के वनवासियों को आज तक विकास के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, संचार सेवा, परिवहन सेवा तो दूर, दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है। पीने का पानी नहीं है। जंगलों में विकास के नाम पर एक ईंट नहीं लगी है। जबकि यहां के पूर्व मुख्यमंत्री, एक के बाद एक, सैकड़ों-हजारों करोड़ रुपयों के घोटालों में पकड़े गए हैं।
पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन के कारण आंध्र प्रदेश की सरकार ठप पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबादवासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। हर वर्ग के लोग इस आंदोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित नए धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा, जबकि यह केवल मृगतृष्णा है।
हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास संभव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सचाई तो यह है कि अलग राज्य बनने का मतलब है आम जनता की जेब पर डाका डालना। अलग राज्य बनेगा, तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाई कोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमंडल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इन सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर, जिसे झूठे आश्वासनों, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
मुझे याद है गोरखालैंड का वह आंदोलन, जब वहां 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आए दिन दार्र्जिलिंग में बंद हो रहे थे। बंद की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आंदोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुंचा। मेरे चारों ओर एलएमजी का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किकआधार क्या है? उत्तर मिला, ‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चौकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की संपत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनाएगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गई। बाद में उसी इलाके में काउंसिल केनेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाएं, तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं।
पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है, जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले, तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? नतीजतन अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था। जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चलता है, जैसा आजकल तेलंगाना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहां की जनता के अनुभव प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाएं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था, पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला।
आंदोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए, तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता, क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं, तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए, जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।
पृथक तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन के कारण आंध्र प्रदेश की सरकार ठप पड़ी है। उद्योग व्यापार का भी खासा नुकसान हो रहा है। हैदराबादवासियों का कहना है कि तेजी से आगे बढ़ता उनका राज्य दस वर्ष पीछे चला गया है। दूसरी तरफ पृथक राज्य की मांग करने वाले इतने भावावेश में हैं कि कुछ सुनने को तैयार नहीं। हर वर्ग के लोग इस आंदोलन में शामिल होते जा रहे हैं। नित नए धरने और प्रदर्शन जारी हैं। इन लोगों को बता दिया गया है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनने से इनका क्षेत्र तेजी से विकसित होगा, जबकि यह केवल मृगतृष्णा है।
हरियाणा जैसे एकाध उदाहरण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि छोटे राज्य में विकास संभव है। पर उसके दूसरे कारण रहे हैं। सचाई तो यह है कि अलग राज्य बनने का मतलब है आम जनता की जेब पर डाका डालना। अलग राज्य बनेगा, तो अलग विधानसभा बनेगी, अलग हाई कोर्ट बनेगा, अलग सचिवालय बनेगा, अलग मंत्रिमंडल बनेगा और तमाम आला अफसरों की अलग फौज खड़ी की जाएगी। इन सब फिजूलखर्ची का बोझ पड़ेगा आम जनता की जेब पर, जिसे झूठे आश्वासनों, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
मुझे याद है गोरखालैंड का वह आंदोलन, जब वहां 25 वर्ष पहले पृथक राज्य बनाने की मांग चली थी। हर ओर गोरखाओं का आतंक था। आए दिन दार्र्जिलिंग में बंद हो रहे थे। बंद की अवहेलना करने वाले पर्यटकों की कारों पर पहाड़ों से पत्थर लुढ़काकर हमले किए जा रहे थे। ऐसे में आंदोलन के नेता सुभाष घीसिंग से मिलना आसान न था। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ लगाकर मैं घीसिंग तक पहुंचा। मेरे चारों ओर एलएमजी का घेरा साथ चला कि कहीं मैं उनकी हत्या न कर दूं। इस आतंक के वातावरण में मैंने घीसिंग से पूछा कि उनकी इस मांग का तार्किकआधार क्या है? उत्तर मिला, ‘तुम मैदान वाला लोग हमारा शोषण करते हो। हमको अपने घरों में चौकीदार और कुक बना देते हो। हमारे राज्य की संपत्ति लूटकर ले जाते हो। हमको तुम्हारे अधीन नहीं रहना। हम अलग राज्य बनाएगा और गोरखा लोगों का डेवलपमेंट करेगा।’ अलग राज्य तो नहीं बना, पर ‘गोरखा हिल डेवलपमेंट काउंसिल’ बन गई। बाद में उसी इलाके में काउंसिल केनेताओं के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन चले। कुल मिलाकर गोरखा वहीं के वहीं रहे, नेताओं का खूब आर्थिक विकास हो गया।
किसी क्षेत्र का विकास न होने का कारण उस राज्य का बड़ा या छोटा होना नहीं होता। इसका कारण होता है, राजनीतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, सरकारी अफसरों का नाकारापन, जाति में बंटी जनता का वोट देते समय सही व्यक्तियों को न चुनना, मीडिया का प्रभावी तरीके से जागरूक न रहना, विपक्षी दलों का लूट में हिस्सा बांटना और सचेतक की भूमिका से जी चुराना। ऐसे ही तमाम कारण हैं, जो किसी क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को धूमिल कर देते हैं। अगर हम सब अपनी-अपनी जगह जागरूक होकर खड़े हो जाएं, तो प्रशासन को काम करने पर मजबूर कर सकते हैं।
पर हमारी दशा भी उस राज्य की तरह है, जिसके राजा ने मुनादी करवाई कि आज रात को हर नागरिक राजधानी के मुख्य फव्वारे में एक लोटा दूध डाले, तो कल दूध का फव्वारा चलेगा। हर नागरिक ने सोचा, सभी तो दूध डालेंगे, मैं पानी ही डाल दूं तो क्या पता चलेगा? नतीजतन अगले दिन फव्वारे में पानी ही चल रहा था। जब कभी क्षेत्रीय स्तर पर पृथक राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चलता है, जैसा आजकल तेलंगाना में हो रहा है, तो स्थानीय मीडिया आग में घी डालने का काम करता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि उस क्षेत्र का मीडिया देश के बाकी राज्यों में जाए और वहां की जनता के अनुभव प्रसारित करे, ताकि स्थानीय जनता को पता चले कि ऐसी ही भावनाएं भड़काकर अन्य राज्यों का भी गठन हुआ था, पर उससे आम जनता को कुछ नहीं मिला।
आंदोलनकारी नेताओं को भी सोचना चाहिए कि अब समय तेजी से बदल रहा है। पहले वाला माहौल नहीं है कि एक बार सत्ता में आ गए, तो मनचाही लूट कर लो। अब तो खुफिया निगाहें हर स्तर पर सतर्क रहती हैं। किसी का भी, कभी भी, कहीं भी भांडाफोड़ हो सकता है। ऐसे में अब जनता को मूर्ख बनाकर बहुत दिनों तक लूटा नहीं जा सकता, क्योंकि जनता का आक्रोश अब उबलने लगा है। अगर पृथक राज्य की मांग करने वाले नेता वास्तव में जनता का भला चाहते हैं, तो इनको अपने मौजूदा प्रांत के विकास कार्यक्रमों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए, जिससे इनके क्षेत्र की जनता को वास्तव में लाभ मिल सके।
लेखक....विनीत नारायण
सौजन्य अमर उजाला
2 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! शानदार पोस्ट!
सार्थक पोस्ट,बधाई .
मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा.
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